10 May 2005

परिचय







01 अप्रैल 1962 को चन्द्रपुरा (शिवपुर) जिला होशंगाबाद में जन्में श्री सुभाष यादव 'भारती' डाक विभाग में कार्यरत हैं। आपकी कविताओं में व्यंग्य का पुट रहता है। सुभाष यादव हास्य-व्यंग्य कविताएँ, क्षणिकाएँ, मुक्तक, गीत आदि लिखते हैं। संगीत, चित्रकारी एवं अध्ययन में आपकी गहरी रुचि है। देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाओं का अनवरत प्रकाशन होता रहता है।
प्रकाशित पुस्तक-
*
कुछ तो ईमान धरम रखो संस्मरण
सम्पर्क सूत्र—
एल.आई.जी.—बी 223
हाउसिंग बोर्ड कालोनी
होशंगाबाद म.प्र. 461001

दूरभाष— 07574-257099

कविता

  • पिंजरे में कैद पंछी

पिंजरे में कैद
एक पंछी ने
हमसे किया सवाल—
न हमने कहीं डाला डाका
न किसी की आबरू पर ताका
न किसी देशद्रोही का दिया साथ
न हमारा किसी हवाले में है हाथ
फिर बताइये, हमें किस लिए किया है बंद
यही सवाल हमारे दिमाग में घूम रहे हैं चंद ।
आखिर कैसा है तुम्हारा ये लोकतंत्र ?
जबकि ये तमाम अपराधी घूम रहे हैं स्वतंत्र
हमने कहा भाई !
तुम्हारी बात में है शत् प्रतिशत् सच्चाई
तुम्हें बंद रखने के इनमें से कोई नहीं हैं कारण
तुम तो पंछी जाति में
मनुष्य जैसे बोलने वाले एकमात्र हो उदाहरण
तुम दिखते हो सुन्दर
तुम्हारा नाम है तोता
तुम्हारे घर में होने से आदमी
अकेले होने पर भी अकेला नहीं होता
तुम्हारे बात करने से भाग जाते हैं चोर
वे सोचते हैं, क्या मालूम इस घर में
न जाने कितने आदमी हैं और
तुम करते हो बातें बड़े शान की
तुम्हारे इन्हीं गुणों के कारण
तुम्हें दहेज में साथ लायी थीं माँ जानकी
ऍसा ही एक और हमने,
गीता में पढ़ा है तुम्हारा प्रसंग
जब तुम ॠषियों के रहते थे संग
वहाँ ॠषियों के बालक
रोज मंत्रों का करते थे गुणगान
वे मंत्र तुम सीख गए थे श्रीमान्
लेकिन एक दिन एक चोर ने तुम्हे चुराया
और ले जाकर एक वेश्या को थमाया
तुम वहाँ भी उन मंत्रों को गुनगुनाने लगे
और रोज उस वेश्या को सुनाने लगे
तुम्हारी इस प्रक्रिया से
उस वेश्या का अन्तःकरण हो गया शुद्ध
वह सद्गति पा गई
और मित्र उस दिन से यह बात
हमारे दिल को भा गई ।
कि तुम इसी तरह किसी दिन खोल दो
ईश्वर से जुड़ने का कोई रहस्य या कोई भेद
और सच पूछो तो, शायद इसीलिए
तुम्हें पिंजरे में रखा गया है कैद ।।

--000--

:: सुभाष यादव ::

दोहे

दोहे

कविता

पन्नी बीनते बच्चे


वे बच्चे
जो बीनते हैं पन्नी
कब हो जाते जवान
पता ही नहीं चलता श्रीमान
कब लग जाते कमाने
उन्हें आज तक
कोई नहीं गया स्कूल दिखाने
उन्हें जन्म से ही
दिखा दी जाती है रोटी
फिर वे रोटी के चक्कर में
बीनने निकल पड़ते पन्नी
कहीं से उठाते प्लास्टिक का जूता
कहीं से प्लास्टिक की छन्नी ।
यह देख हर मोहल्ले का कुत्ता
उन पर भौंकता
हर आदमी उनको टोंकता
कई तो दे देते गाली
मगर श्रीमान् ! आज तक उन्होंने
किसी के विरुद्ध आवाज़ तक नहीं निकाली
वे इसे अनसुना कर दूसरे मोहल्ले में बढ़ जाते
उस मोहल्ले के कुत्ते भी उन पर गुर्राते
मगर, वे चुपचाप पन्नी बीनते रहते
दिन भर धूप छाँव सहते
ढ़लते सूरज को देख पहुँच जाते किसी दूकान
बेंच कर पन्नी खरीदते सामान
जलाते किसी प्लेटफार्म या खुले मैदान में चूल्हा
सेंक कर रोटी खाते
खुले आसमान के नीचे सो जाते
न कोई चिन्ता न कोई फिक्र उन्हें सताती
न कोई ट्रेन या मोटर की आवाज़ उन्हें जगाती
न जनता का शोरगुल उन्हें उठा पाता
केवल सूर्य ही उन्हें जगाता
उठते ही फिर पन्नी बीनने निकल जाते ।
इसी प्रकार अपना जीवन बिताते
एक दिन हो जाते जवान
इसी गगन के नीचे,
उनकी शादी हो जाती श्रीमान्
फिर उनके भी हो जाते बच्चे
दबाये बच्चों का काँख में
पन्नी बीनने निकल जाते
उन बच्चों को भी,
पन्नी बीनने के गुर सिखाते
चलते ही पैर, वे भी बीनने लगते पन्नी
चाहे मुन्ना हो मुन्नी
इसी प्रकार उनका बीत जाता
बचपन, बुढ़ापा, जवानी
ये है उनके जीवन की कहानी ।
अगर ये बच्चे नहीं होते श्रीमान्
तो मोहल्ले की पन्नियाँ कौन बीनता ?
इन पन्नियों से नालियाँ हो जाती चोक
फिर कौन करता इनकी सफाई
ये तो इन बच्चों की है दुहाई
कि बच गई नाली की गंदगी
रोड पर आने से
और हम बच गये
नगरपालिका के चक्कर लगाने से
ये तो इन बच्चों के हैं एहसान
अगर ये बच्चे नहीं होते श्रीमान्
तो मोहल्ले में, पन्नियों के लग जाते ढ़ेर
आज बस्ती में है पन्नी
कल पन्नी में बस्ती हो जाती
जिनको खाने से
कई गौ माताओं की जान खतरे में पड़ जाती
सच में ये बच्चे, देश के लिए वरदान है
पर्यावरण को शुद्ध रखने में
इनका बहुत बड़ा योगदान है ।

***


:: सुभाष यादव भारती ::

09 May 2005

मेरा गाँव

बात उन दिनों की है
जब हम रहते थे गाँव में
और खेलते थे इमली की छाँव में
तब कई मित्र थे मेरे
जो घंटों रहते थे घेरे
तब जाति पाँति का नहीं था ज्ञान
तब नहीं था कोई हिन्दू या मुसलमान
तब हम सब थे भाई भाई
वे दिन, कितने सुहाने और नेक थे
जब हम सब एक थे
तब नहीं थी बिजली की रोशनी
केवल एक दीप टिमटिमाता था
जो अंधकार में राह दिखाता था ।
आज भरपूर है रोशनी
पर राह का कोई अता पता नहीं
अर्थात् हम रोशनी की चकाचौंध में
अपने पथ से गए हैं भटक
देखकर रोशनी की चटक मटक
हम सब गए हैं भूल
आज नहीं है गाँव की धूल
जिसमें बैठकर के हम
बुजुर्गों की ज्ञानभरी बातें
सुनते थे ध्यान से
और जग के कल्याण की
दुआ करते थे भगवान से
आज नहीं है वह दीपक की रोशनी
जिसके चारों ओर बैठकर पढ़ते थे हम
रोशनी फिर भी नहीं पढ़ती थी कम
उस समय दस बार मिलते थे दिन रात में
और घंटों बिता देते थे बात बात में
आज दूभर हो गया है मिलना एक बार
भीड़ में खो गया है वह स्नेह, वह प्यार
आज दिलों में नहीं है वह चाहत वह प्यास
जिसकी वास्तव में है तलाश
आज मैं यादव से, यादव जी
और शर्मा से शर्मा जी हो गया हूँ
जमाने के भटकाव में बह गया हूँ ।
आज वह अपनत्व भरा शब्द
भैया, हो गया है गायब
जिसमें झलकता था अपनापन
जिसमें साफ स्वच्छ था मन
अर्थात अब न तो वह प्यार भरा शब्द है
न ही वह अपनापन
आज रेगिस्तान की तरह हो गया है मन
आज भी एक ही शहर में मेरे कई मित्र हैं
लेकिन वो समर्पण, वो स्नेह, वो प्यार नहीं
अब मन में वह टीस, वह तड़फ, वह पुकार नहीं
आज किसी से भी एकाएक गले मिलना
हो गया है दूभर
क्योंकि एकाएक गले मिलने पर
उनके मन में, शंका कुशंकाएँ जन्म ले लेती हैं
मन ही मन कहती हैं
क्या मालूम, क्यों यादव जी
इतनी हमदर्दी दिखा रहे हैं
बार बार गले लगा रहे हैं
आज दोस्त हैं, गाड़ी है, मकान है
बीबी है, बच्चे हैं दुकान है
सब कुछ है मेरे पास
परन्तु नहीं है वह आत्मीय प्यास
जिसमें हम बेधड़क गले मिलते थे
जिसमें अपनत्व के फूल खिलते थे
आज सब कुछ पाकर भी
मैंने बहुत कुछ खो दिया है
जो मुझे मेरे देश की संस्कृति ने दिया है ।
उस समय किसी के दुःख दर्द में
शरीक होता था पूरा गाँव
आज घर में ही नहीं है वह भाव
यही सब सोचकर आँखें भर आती हैं
जब याद उस समय की आती है
जिसकी मुझे अभी भी तलाश है
जिसकी मन में अभी भी प्यास है
उस समय आदमी को आदमी से प्यार था
और सच पूछो तो
मेरा पूरा गाँव ही एक परिवार था ।
***


:: सुभाष यादव भारती ::

07 May 2005

प्रतिक्रिया

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